शिक्षक का योगदान  

हम सभी कभी न कभी अपने जीवनकाल में स्कूलो में गए है।  हमने  कभी अपने शिक्षकों का अनादर नहीं किया, परन्तु आज के इस समय में हम देखते है की शिक्षक व् विद्यार्थी दोनों ही आपस में तालमेल बनाने में असमर्थ होते जा है।  इन सभी बातो से विद्यार्थी का जीवन एवं शिक्षक का धैर्य दोनों ही ख़राब हो जाते   है।  आज मिडिया के अत्यधिक उपयोग से  बहुत सारी कुरीतियाँ भी पनपने  लगी है। ३ वर्ष  की आयु से ही  बच्चा स्कूल भेज दिया जाता है और अन्य बच्चो  के साथ दौड़  शामिल हो जाता है। उससे परिवार, स्कूल और समाज की काफी सारी उम्मीदें जुड़ जाती है। दौड़ के इस दबाव में वह बच्चा बच्चा नहीं एक प्रतिस्पर्धी बनकर रह जाता है। आज घर से ज्यादा समय वह स्कूल में व्यतित करता है, यही पर ही वह अपने जीवन के लिए निर्णय लेने लगता है।  अच्छे -बुरे सारे अहसास वह अपने शिक्षक के साथ बाटता है या  बाटना चाहता है। शिक्षक अपने सिलेबस को पूरा करने में और स्कूल के अन्य कामो को पूरा करने में व्यस्त होने के कारण बच्चे को समय नहीं  दे पाता और यही हल माता-पिता का भी घर में  होता है।  बच्चा करे तो क्या करे ? इसलिए बच्चा स्वयं ही अपने निर्णय लेने लगता है, और वो निर्णय उसे सही प्रतीत होने लगते है ,चाहे वो बदतमीजी ही क्यों न हो। मेरा मानना  है की स्कूल प्रबंधन शिक्षा को व्यवसाय मात्र न समझे परन्तु देश के हित में तथा मानवहित में निर्णय ले, क्योकि आज का विद्यार्थी कल का नागरिक हैं। मेरा एक निवेदन सारे शिक्षक साथियों से यह है कि; हर एक बच्चे को स्वयं का  बच्चा समझे और उसे प्यार दे, समय दे जिसकी उसे सबसे ज़्यादा ज़रूरत होती है।  


Comments

  1. बहुत सुंदर आलेख, वर्तमान परिवेश में विद्यार्थी, शिक्षक और परम्परागत शिक्षण व्यवस्था पर सीधा कटाक्ष है. अभिभावकों और शिक्षण संस्थानों को भी संदेश है कि वे उस कच्ची मिट्टी को सही आकार दें. उत्तम विचारों के लिए बधाई. - @ विकास

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